अजीब लोग थे ख़ामोश रह के जीते थे
दिलों में हुर्मत-ए-संग-ए-सदा के होते हुए
Wasi Shah
Allama Iqbal
Rahat Indori
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Parveen Shakir
Mir Taqi Mir
Anwar Masood
Faiz Ahmad Faiz
Gulzar
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रात फिर दर्द बनी
ये लम्हा लम्हा तकल्लुफ़ के टूटते रिश्ते
क्यूँ मता-ए-दिल के लुट जाने का कोई ग़म करे
शाम की दहलीज़ पर ठहरी हुई यादें 'ज़ुबैर'
भूली-बिसरी हुई यादों में कसक है कितनी
क़सीदे ले के सारे शौकत-ए-दरबार तक आए
ज़िंदगी ऐसे घरों से तो खंडर अच्छे थे
दिल को रंजीदा करो आँख को पुर-नम कर लो
बिछड़ते दामनों में फूल की कुछ पत्तियाँ रख दो
औरतों की आँखों पर काले काले चश्मे थे सब की सब बरहना थीं
शरीफ़-ज़ादा
बशारत पानी की