सम्तों का ज़वाल
जिधर तुम हो
उसी जानिब मनाज़िर आँख मलते हैं
तुम्हारी सम्त है शहर-ए-निगाराँ, चाँद की नगरी
ज़मीं की गोद में हँसती हुई फ़सलों की शादाबी
मचलती नद्दियों का शोर नीली पुर-सुकूँ झीलें
पहाड़ों पर रुपहली धूप और पेड़ों की अँगनाई
मकानों के हरम आबादियों के जागते मंज़र
तुम्हारी सम्त है जिस्मों की चाँदी साँस के मेले
दिलों की धड़कनें आवाज़ की जलती हुई शमएँ
मिरी जानिब सुलगती रेत तपती धूप के सहरा
घने जंगल हैं वीरानों की ना-बीना रिफ़ाक़त है
ज़मीं है जिस के आँगन में सलीबें ईस्तादा हैं
ख़मोशी है लहू जो चाटती है अपने ज़ख़्मों का
मिरी जानिब शिकस्ता पत्थरों से खेलते मंज़र
सफ़र लम्बा है यक-रंगी से हम तुम ऊब जाएँगे
चलो कुछ देर चश्म-ए-शौक़ के पहलू बदल डालें
(1198) Peoples Rate This