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रद्द-ए-अमल - ज़ुबैर रिज़वी कविता - Darsaal

रद्द-ए-अमल

मुझे ये यक़ीं था

कि जब मैं सुनाऊँगा

इस शहर को

शब के पहलू में किस तरह पाया है मैं ने

तो सब लोग मेरे क़रीब आ के

हैरत से मुझ को तकेंगे

भरी पियालियाँ चाय की

हाथ से छूट कर गिर पड़ेंगी

निगाहों में

गहरी उदासी के बादल उमडने लगेंगे

नए मुआशरे की

बद-आमालियों और बद-चलनियों पर

बड़े सख़्त लहजे में तन्क़ीद होगी

मगर कोई प्याली न हाथों से छूटी

न गहरी उदासी निगाहों में उमडी

नए मुआशरे की

बद-आमालियों और बद-चलनियों पर

किसी ने न संग-ए-मलामत ही फेंका

सुना सिर्फ़ इतना

अभी तुम को इस शहर के जानने में कई दिन लगेंगे

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