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रात फिर दर्द बनी - ज़ुबैर रिज़वी कविता - Darsaal

रात फिर दर्द बनी

आसमाँ टूटा हुआ चाँद

हथेली पे लिए हँसता है

रात आज़ुर्दा सितारों से सुख़न करती हुई

रहगुज़ारों पे दबे पाँव चली आई है

भीग जाती है किसी आँख में आँसू बन कर

फैल जाती है किसी याद की ख़ुश्बू बिन कर

कहीं टूटे हुए पैमान-ए-वफ़ा जोड़ती है

मौज-ए-मय बन के छलक पड़ती है पैमानों से

दिल का अहवाल सुना करती है दीवानों से

आसमाँ चाँद से ख़ाली हुआ

और अब कोई सितारा भी तो रख़्शंदा नहीं

रात बे-नूर गुज़र-गाहों पे चलते हुए

अफ़्सुर्दा है नम-दीदा है

एक सन्नाटा तरसता हुआ आवाज़ों को

बे-ज़िया करता हुआ रात की मेहराबों को

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