परिंदे लौट आए
पुरानी बात है
लेकिन ये अनहोनी सी लगती है
हुआ इक बार यूँ
बस्ती के बाग़ों में
किसी भी पेड़ की टहनी पे कोई फल नहीं आया
हरे पत्तों का मौसम लौट कर वापस नहीं आया
परिंदे रो दिए
और दूर के बाग़ों में हिजरत कर गए सारे
बहुत आज़ुर्दा हो कर बाग़बानों ने
दुआएँ कीं
मुनाजातें पढ़ीं
अपने गुनाहों की
ख़ुदा-ए-लम-यज़ल से मआफियाँ माँगीं
और क्यारियाँ काटीं
हरे पत्तों का मौसम लौट कर वापस नहीं आया
परिंदे लौट आए थे
नई बस्ती के बाग़ों से
हरे पत्तों की टहनी तोड़ लाए थे
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