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अली-बिन-मुत्तक़ी रोया - ज़ुबैर रिज़वी कविता - Darsaal

अली-बिन-मुत्तक़ी रोया

पुरानी बात है

लेकिन ये अनहोनी सी लगती है

अली-बिन-मुत्तक़ी मस्जिद के मिम्बर पर खड़ा

कुछ आयतों का विर्द करता था

जुमआ का दिन था

मस्जिद का सेहन

अल्लाह के बंदों से ख़ाली था

ये पहला दिन था मस्जिद में कोई आबिद नहीं आया

अली-बिन-मुत्तक़ी रोया

मुक़द्दस आयतों को मख़मलीं जुज़-दान में रक्खा

इमाम-ए-दिल-गिरफ़्ता

नीचे मिम्बर से उतर आया

ख़ला में दूर तक देखा

फ़ज़ा में हर तरफ़ फैली हुई थी

धुँद की काई

हुआ फिर यूँ

मुंडेरों गुम्बदों पर अन-गिनत पर फड़ फड़ाए

कासनी काले कबूतर

सेहन में नीचे उतर आए

वज़ू के वास्ते रक्खे हुए लोटों पर

इक इक कर के आ बैठे

इमाम-ए-दिल-गिरफ़्ता

फिर से मिम्बर पर चढ़ा

जुज़-दान को खोला

सफ़ों पर इक नज़र डाली

ये पहला दिन था मस्जिद में

वज़ू का हौज़ ख़ाली था

सफ़ें मामूर थीं सारी!

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