ज़िंदगी ऐसे घरों से तो खंडर अच्छे थे

ज़िंदगी ऐसे घरों से तो खंडर अच्छे थे

जिन की दीवार ही अच्छी थी न दर अच्छे थे

उन की जन्नत में रहे हम तो ये एहसास हुआ

अपने वीरानों में हम ख़ाक-बसर अच्छे थे

बंद थी हम पे वही राह-ए-गुलिस्ताँ कि जहाँ

साया करते हुए दो-रूया शजर अच्छे थे

उम्र की अंधी गुफाओं का सफ़र लम्बा था

वो तो कहिए कि रफ़ीक़ान-ए-सफ़र अच्छे थे

कहीं सहरा कहीं जंगल तो कहीं दरिया थे

मेरे हिस्से की ज़मीं तेरे सफ़र अच्छे थे

सैर-ए-दुनिया से जो लौटे तो ये जाना हम ने

शहर-ए-'ग़ालिब' तिरे ख़ूबान-ए-नज़र अच्छे थे

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