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वो बाद-ए-गर्म था बाद-ए-सबा के होते हुए - ज़ुबैर रिज़वी कविता - Darsaal

वो बाद-ए-गर्म था बाद-ए-सबा के होते हुए

वो बाद-ए-गर्म था बाद-ए-सबा के होते हुए

मैं ज़ख़्म ज़ख़्म था बर्ग-ए-हिना के होते हुए

बस एक मंज़र-ए-ख़ाली था मेरी आँखों में

निगार-ख़ाना-ए-रंग-ए-हिना के होते हुए

वो ताक़-ए-दिल हो कि मेहराब-ए-मिम्बर-ओ-मक़्तल

चराग़ सब ने जलाए हवा के होते हुए

अजीब लोग थे ख़ामोश रह के जीते थे

दिलों में हुर्मत-ए-संग-ए-सदा के होते हुए

वो एक वस्ल की शब भी मलाल में गुज़री

गिरह-कुशाई-ए-बंद-ए-क़बा के होते हुए

वो लौट आए थे रंज-ए-सफ़र के इम्काँ से

रफ़ीक़-ए-राह की आवाज़-ए-पा के होते हुए

न कम हुआ था गुनाहों से रग़्बतों का जुनूँ

हज़ार सोहबत-ए-सिद्क़-ओ-सफ़ा के होते हुए

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