तिलिस्म-ए-हर्फ़-ओ-हिकायत उसे भी ले डूबा
तिलिस्म-ए-हर्फ़-ओ-हिकायत उसे भी ले डूबा
ज़बाँ से उस की हर इक बात इक फ़साना लगे
वो जिस को दूर से देखा था अजनबी की तरह
कुछ इस अदा से मिला है कि दोस्ताना लगे
इधर उधर से मुक़ाबिल को यूँ न घाइल कर
वो संग फेंक कि बे-साख़्ता निशाना लगे
ये लम्हा लम्हा तकल्लुफ़ के टूटते रिश्ते
न इतने पास मिरे आ कि तू पुराना लगे
वो एक शख़्स जो लेटा है रेग-ए-साहिल पर
उसे न मौजा-ए-तूफ़ाँ का ताज़ियाना लगे
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