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था हर्फ़-ए-शौक़ सैद हुआ कौन ले गया - ज़ुबैर रिज़वी कविता - Darsaal

था हर्फ़-ए-शौक़ सैद हुआ कौन ले गया

था हर्फ़-ए-शौक़ सैद हुआ कौन ले गया

मैं जिस को सुन सकूँ वो सदा कौन ले गया

इक मैं ही जामा-पोश था उर्यानियों के बीच

मुझ से मिरी अबा ओ क़बा कौन ले गया

एहसास बिखरा बिखरा सा हारा हुआ बदन

चढ़ती हरारतों का नशा कौन ले गया

बातों का हुस्न है न कहीं शोख़ी-ए-बयाँ

शहर-ए-नवा से हर्फ़ ओ सदा कौन ले गया

मैं कब से हूँ असीर सराबों के जाल में

नीले समुंदरों पे घटा कौन ले गया

मय-ख़ाना छोड़ घर की फ़ज़ाओं में आ गए

हम से मता-ए-लग्ज़िश-ए-पा कौन ले गया

मैं जब न था तो मुझ पे बहुत क़हक़हे लगे

अहबाब से सिरिश्त-ए-वफ़ा कौन ले गया

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