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सितमगरी भी मिरी कुश्तगाँ भी मेरे थे - ज़ुबैर रिज़वी कविता - Darsaal

सितमगरी भी मिरी कुश्तगाँ भी मेरे थे

सितमगरी भी मिरी कुश्तगाँ भी मेरे थे

बयान करते हुए नौहा-ख़्वाँ भी मेरे थे

फ़ज़ा में उड़ते परिंदों की डार मेरी थी

निशाने मेरे थे तीर-ओ-कमाँ भी मेरे थे

वो हज्व मेरी थी वो सब क़सीदे मेरे थे

तुम्हारे बारे में वहम-ओ-गुमाँ भी मेरे थे

सफ़-ए-अज़ीज़ाँ सफ़-ए-दुश्मनाँ भी मेरी थी

वो जंग मेरी थी सूद-ओ-ज़ियाँ भी मेरे थे

सफ़र भी मेरा था और गर्द-बाद मेरे थे

वो इश्क़ मेरा था और इम्तिहाँ भी मेरे थे

लहू भी मेरा था और आस्तीं भी मेरी थी

वो तेग़ मेरी थी उस पर निशाँ भी मेरे थे

हज़ीमतें भी मिरी मुख़बिरी भी मेरी थी

हलाक होते हुए पासबाँ भी मेरे थे

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