क़सीदे ले के सारे शौकत-ए-दरबार तक आए
क़सीदे ले के सारे शौकत-ए-दरबार तक आए
हमीं दो चार थे जो हल्क़ा-ए-इंकार तक आए
वो तपती धूप से जब साया-ए-दीवार तक आए
तो जाती धूप के मंज़र लब-ए-इज़हार तक आए
वो जिस को देखने इक भीड़ उमडी थी सर-ए-मक़्तल
उसी की दीद को हम भी सुतून-ए-दार तक आए
तरब-ज़ादों की रातें हुस्न से आबाद रहती थीं
सुख़न-ज़ादे तो बस ज़िक्र-ए-लब-ओ-रुख़्सार तक आए
ज़मीं के हाथ पर है आसमाँ ये क्या मक़ाम आया
ये किस इम्काँ भरी दुनिया के हम आसार तक आए
अना के गुम्बदों में जिन का फ़न गूँजा किया बरसों
हुनर उन के भी बिकने रौनक़-ए-बाज़ार तक आए
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