कुछ दिनों इस शहर में हम लोग आवारा फिरें
कुछ दिनों इस शहर में हम लोग आवारा फिरें
और फिर इस शहर के लोगों का अफ़्साना लिखें
शाम हो तो दोस्तों के साथ मय-ख़ाने चलें
सुब्ह तक फिर रात के ताक़ों में बे-मसरफ़ जलें
मुद्दतें गुज़रीं हम उस की राह से गुज़रे नहीं
आज उस की राह जाने के बहाने ढूँड लें
शहर के दुख का मुदावा ढूँड लो चारागरो
इस से पहले लोग दीवारें सियह करने लगें
एक जैसे मंज़रों से आँख बे-रौनक़ हुई
आओ अब कुछ देर दीवारों से बाहर झाँक लें
पहले घर से बे-ख़याली में निकल पड़ते थे लोग
अब तक़ाज़ा-ए-जुनूँ ये है कि वो अच्छे लगें
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