ख़ुर्शीद की बेटी कि जो धूपों में पली है
ख़ुर्शीद की बेटी कि जो धूपों में पली है
तहज़ीब की दीवार के साए में खड़ी है
धुँदला गए रंजिश में उस आवाज़ के शीशे
बरसों जो समाअ'त से हम-आग़ोश रही है
अब तक है वही सिलसिला-ए-ख़ाना-ख़राबी
ऐ इश्क़-ए-सितम-पेशा तिरी उम्र बड़ी है
हम आएँ तो ग़ैरों की तरह बज़्म में बैठें
ऐ साहब-ए-ख़ाना तिरी ये शर्त कड़ी है
डसवाया है फुंकारते साँपों से बदन को
तब जा के ये इक दौलत-ए-फ़न हाथ लगी है
नक़्क़ाद के हाथों में हैं तन्क़ीद के तेशे
सहमी हुई तख़्लीक़ किताबों में पड़ी है
(1097) Peoples Rate This