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हवा की अंधी पनाहों में मत उछाल मुझे - ज़ुबैर रिज़वी कविता - Darsaal

हवा की अंधी पनाहों में मत उछाल मुझे

हवा की अंधी पनाहों में मत उछाल मुझे

ज़मीं हिसार-ए-कशिश से न तू निकाल मुझे

सिवा-ए-रंज-ए-नदामत न कुछ मिला तुम को

मैं कह रहा था बनाओ न तुम मिसाल मुझे

शिकस्त-ए-दिल ने अजब ग़म को सूरतें दी हैं

रफ़ाक़तों की घड़ी है ज़रा सँभाल मुझे

मैं ख़्वाब ख़्वाब जज़ीरों की सैर को निकलूँ

उठा के पर्दा-ए-शब हैरतों में डाल मुझे

कभी कभी उसे दिल से अज़ीज़-तर जाना

ये सर जो दोश पे लगता रहा वबाल मुझे

ज़मीन मैं तिरी चाहत में ज़ेर-ए-दाम आया

असीर कर नहीं पाया था कोई जाल मुझे

बयाज़-ए-वक़्त पे उस ने लिखा है नाम मिरा

यक़ीन कर कि न होगा कभी ज़वाल मुझे

सुख़न के कुछ तो गुहर मैं भी नज़्र करता चलूँ

अजब नहीं कि करें याद माह ओ साल मुझे

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