ग़ुरूब-ए-शाम ही से ख़ुद को यूँ महसूस करता हूँ
ग़ुरूब-ए-शाम ही से ख़ुद को यूँ महसूस करता हूँ
कि जैसे इक दिया हूँ और हवा की ज़द पे रक्खा हूँ
चमकती धूप तुम अपने ही दामन में न भर लेना
मैं सारी रात पेड़ों की तरह बारिश में भीगा हूँ
ये किस आवाज़ का बोसा मिरे होंटों पे काँपा है
मैं पिछली सब सदाओं की हलावत भूल बैठा हूँ
बिछड़ के तुम से मैं ने भी कोई साथी नहीं ढूँडा
हुजूम-ए-रहगुज़र में दूर तक देखो अकेला हूँ
कोई टूटा हुआ रिश्ता न दामन से उलझ जाए
तुम्हारे साथ पहली बार बाज़ारों में निकला हूँ
मैं गिर के टूट जाऊँ या कोई मेहराब मिल जाए
न जाने कब से हाथों में खिलौना बन के जीता हूँ
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