छोड़ कर घर की फ़ज़ा रानाइयाँ पछता गईं
छोड़ कर घर की फ़ज़ा रानाइयाँ पछता गईं
रास्तों की धूल में आराइशें कजला गईं
किस ने फैला दी मिरे आँगन में चादर धूप की
मेरे महताबों की सारी सूरतें कुम्हला गईं
अपना तन्हा अक्स पा कर मैं ने कंकर फेंक दी
सतह-ए-साहिल पर कई परछाइयाँ लहरा गईं
मुद्दतों के ब'अद जी चाहा था छत पर सोइए
रात पहलू में न लेटी थी कि बूँदें आ गईं
कूचा कूचा काटते फिरते हैं यादों का लिखा
दिल को जाने क्या तिरी रुस्वाइयाँ समझा गईं
दूर तक कोई न आया उन रुतों को छोड़ने
बादलों को जो धनक की चूड़ियाँ पहना गईं
शाम की दहलीज़ पर ठहरी हुई यादें 'ज़ुबैर'
ग़म की मेहराबों के धुँदले आईने चमका गईं
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