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छोड़ कर घर की फ़ज़ा रानाइयाँ पछता गईं - ज़ुबैर रिज़वी कविता - Darsaal

छोड़ कर घर की फ़ज़ा रानाइयाँ पछता गईं

छोड़ कर घर की फ़ज़ा रानाइयाँ पछता गईं

रास्तों की धूल में आराइशें कजला गईं

किस ने फैला दी मिरे आँगन में चादर धूप की

मेरे महताबों की सारी सूरतें कुम्हला गईं

अपना तन्हा अक्स पा कर मैं ने कंकर फेंक दी

सतह-ए-साहिल पर कई परछाइयाँ लहरा गईं

मुद्दतों के ब'अद जी चाहा था छत पर सोइए

रात पहलू में न लेटी थी कि बूँदें आ गईं

कूचा कूचा काटते फिरते हैं यादों का लिखा

दिल को जाने क्या तिरी रुस्वाइयाँ समझा गईं

दूर तक कोई न आया उन रुतों को छोड़ने

बादलों को जो धनक की चूड़ियाँ पहना गईं

शाम की दहलीज़ पर ठहरी हुई यादें 'ज़ुबैर'

ग़म की मेहराबों के धुँदले आईने चमका गईं

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