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बिछड़ते दामनों में फूल की कुछ पत्तियाँ रख दो - ज़ुबैर रिज़वी कविता - Darsaal

बिछड़ते दामनों में फूल की कुछ पत्तियाँ रख दो

बिछड़ते दामनों में फूल की कुछ पत्तियाँ रख दो

तअल्लुक़ की गिराँबारी में थोड़ी नर्मियाँ रख दो

भटक जाती हैं तुम से दूर चेहरों के तआक़ुब में

जो तुम चाहो मिरी आँखों पे अपनी उँगलियाँ रख दो

बरसते बादलों से घर का आँगन डूब तो जाए

अभी कुछ देर काग़ज़ की बनी ये कश्तियाँ रख दो

धुआँ सिगरेट का बोतल का नशा सब दुश्मन-ए-जाँ हैं

कोई कहता है अपने हाथ से ये तल्ख़ियाँ रख दो

बहुत अच्छा है यारो महफ़िलों में टूट कर मिलना

कोई बढ़ती हुई दूरी भी अपने दरमियाँ रख दो

नुक़ूश-ए-ख़ाल-ओ-ख़द में दिल-नवाज़ी की अदा कम है

हिजाब-आमेज़ आँखों में भी थोड़ी शोख़ियाँ रख दो

हमीं पर ख़त्म क्यूँ हो दास्तान-ए-ख़ाना-वीरानी

जो घर सहरा नज़र आए तो उस में बिजलियाँ रख दो

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