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कहीं से आया तुम्हारा ख़याल वैसे ही - ज़ुबैर क़ैसर कविता - Darsaal

कहीं से आया तुम्हारा ख़याल वैसे ही

कहीं से आया तुम्हारा ख़याल वैसे ही

ग़ज़ल का होना हुआ है कमाल वैसे ही

हमारे हुस्न-ए-नज़र का कमाल कुछ भी नहीं

तो क्या तुम्हारा है सारा जमाल वैसे ही

तिरा विसाल कि जिस तौर मेरे बस में नहीं

हुआ है हिज्र में जीना मुहाल वैसे ही

तिरा जवाब मिरे काम का नहीं है अब

कि मैं तो भूल चुका हूँ सवाल वैसे ही

कहा ये किस ने कि उकता गया जुनूँ से मैं

पड़ा हूँ दश्त में अब तो निढाल वैसे ही

उछालता है जज़ीरों को जिस तरह ऐ बहर

मिरी भी लाश को तह से उछाल वैसे ही

निकालता है तू जिस तौर रात से सूरज

हमारी शब से हमें भी निकाल वैसे ही

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