वो जिस ने आँख अता की है देखने के लिए
उसी को छोड़ के सब कुछ दिखाई देता है
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भरे हुए जाम पर सुराही का सर झुका तो बुरा लगेगा
बैठे-बैठे इक दम से चौंकाती है
बस मैं मायूस होने वाला था
उस के ख़त रात भर यूँ पढ़ता हूँ
इस दर का हो या उस दर का हर पत्थर पत्थर है लेकिन
शायद क़ज़ा ने मुझ को ख़ज़ाना बना दिया
रास्ते जो भी चमक-दार नज़र आते हैं
अपना कंगन समझ रहे हो क्या
अब उस का वस्ल महँगा चल रहा है
तुम्हारे ग़म से तौबा कर रहा हूँ
कोई तितली निशाने पर नहीं है