उस के ख़त रात भर यूँ पढ़ता हूँ
जैसे कल इम्तिहान हो मेरा
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रास्ते जो भी चमक-दार नज़र आते हैं
तुम्हारा सिर्फ़ हवाओं पे शक गया होगा
अब उस का वस्ल महँगा चल रहा है
एक पहुँचा हुआ मुसाफ़िर है
पहेली ज़िंदगी की कब तू ऐ नादान समझेगा
इस दर का हो या उस दर का हर पत्थर पत्थर है लेकिन
तुम्हारे ग़म से तौबा कर रहा हूँ
पहले मुफ़्त में प्यास बटेगी
अपना कंगन समझ रहे हो क्या
आज तो दिल के दर्द पर हँस कर
बस मैं मायूस होने वाला था