इस दर का हो या उस दर का हर पत्थर पत्थर है लेकिन
कुछ ने मेरा सर फोड़ा हैं कुछ पर मैं ने सर फोड़ा है
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पहले मुफ़्त में प्यास बटेगी
अपना कंगन समझ रहे हो क्या
भरे हुए जाम पर सुराही का सर झुका तो बुरा लगेगा
वैसे तू मेरे मकाँ तक तू चला आता है
आइना कब बनाओगे मुझ को
बस मैं मायूस होने वाला था
अब उस का वस्ल महँगा चल रहा है
ऊँचे नीचे घर थे बस्ती में बहुत
पहेली ज़िंदगी की कब तू ऐ नादान समझेगा
तुम्हारा सिर्फ़ हवाओं पे शक गया होगा
एक पहुँचा हुआ मुसाफ़िर है