एक पहुँचा हुआ मुसाफ़िर है
दिल भटकने में फिर भी माहिर है
कौन लाया है इश्क़ पर ईमाँ
मैं भी काफ़िर हूँ तू भी काफ़िर है
दर्द का वो जो हर्फ़-ए-अव्वल था
दर्द का वो ही हर्फ़-ए-आख़िर है
काम अधूरा पड़ा है ख़्वाबों का
आज फिर नींद ग़ैर-हाज़िर है
लाज रख ली तिरी समाअ'त ने
वर्ना 'ताबिश' भी कोई शाइर है