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कलियाँ चटक रही हैं बहारों की गोद में - ज़ोहरा नसीम कविता - Darsaal

कलियाँ चटक रही हैं बहारों की गोद में

कलियाँ चटक रही हैं बहारों की गोद में

जल्वों की महफ़िलें हैं सितारों की गोद में

वो मौज जिस के ख़ौफ़ से पतवार गिर पड़े

कश्ती को ले गई है किनारों की गोद में

मंज़िल सिमट के ख़ुद ही मिरे पास आ गई

मैं सर-गराँ थी राह-गुज़ारों की गोद में

यूँ तो दिए फ़रेब सहारों ने उम्र भर

दिल को बड़ा सुकूँ था सहारों की गोद में

तेरा ख़याल तेरी मोहब्बत ग़म-ए-हयात

सब सो गए हैं वक़्त के धारों की गोद में

मानूस हो गई हूँ ख़िज़ाँ से ये सोच कर

कुछ भी नहीं 'नसीम' बहारों की गोद में

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