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अपनी तश्हीर करे या मुझे रुस्वा देखे - ज़िया शबनमी कविता - Darsaal

अपनी तश्हीर करे या मुझे रुस्वा देखे

अपनी तश्हीर करे या मुझे रुस्वा देखे

वो मिरे वास्ते इस शहर में क्या क्या देखे

लम्हा-ए-रफ़्ता को आवाज़ तो देती होगी

आईना आईना जब कोई वो मुझ सा देखे

शाम की आख़िरी सरहद पे मिरी तरह कोई

अपनी बर्बादी का ख़ुद ही न तमाशा देखे

अपने बच्चों को दुआ देता हूँ ये शाम ओ सहर

मेरी ही तरह ये दुनिया तुम्हें हँसता देखे

पेश-ए-आईना मैं अब उस को सँवरता देखूँ

सीढ़ियों से जो मुझे रोज़ उतरता देखे

किस ने माँगी थी सर-ए-शाम दुआ मेरे लिए

आज की रात तुझे चाँद न तन्हा देखे

मैं चला जाऊँ तो वो देर तलक खिड़की से

शाम की धुँद में सच-मुच मिरा रस्ता देखे

मेरे ख़्वाबों की सदाक़त को ज़बाँ मिल जाए

सुब्ह-दम जूँही 'ज़िया' अपना वो चेहरा देखे

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