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मेरे कमरे में इक ऐसी खिड़की है - ज़िया मज़कूर कविता - Darsaal

मेरे कमरे में इक ऐसी खिड़की है

मेरे कमरे में इक ऐसी खिड़की है

जो इन आँखों के खुलने पर खुलती है

ऐसे तेवर दुश्मन ही के होते हैं

पता करो ये लड़की किस की बेटी है

रात को इस जंगल में रुकना ठीक नहीं

इस से आगे तुम लोगों की मर्ज़ी है

मैं इस शहर का चाँद हूँ और ये जानता हूँ

कौन सी लड़की किस खिड़की में बैठी है

जब तू शाम को घर जाए तो पढ़ लेना

तेरे बिस्तर पर इक चिट्ठी छोड़ी है

उस की ख़ातिर घर से बाहर ठहरा हूँ

वर्ना इल्म है चाबी गेट पे रक्खी है

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