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कोई भी रस्ता बहुत सोच कर चुनूँगा मैं - ज़िया मज़कूर कविता - Darsaal

कोई भी रस्ता बहुत सोच कर चुनूँगा मैं

कोई भी रस्ता बहुत सोच कर चुनूँगा मैं

और अब की बार अकेला सफ़र करूँगा मैं

उसे लिखूँगा कि वो राब्ता करे मुझ से

और इख़्तिताम पे नंबर नहीं लिखूँगा मैं

मैं और हिज्र के सदमे नहीं उठा सकता

वो अब जहाँ भी मिला हाथ जोड़ लूँगा मैं

जगह जगह न तअ'ल्लुक़ ख़राब कर मेरा

तिरे लिए तो किसी से भी लड़ पड़ूँगा मैं

वो एक मछली फँसाने की देर है मुझ को

फिर उस के बा'द मछेरा नहीं रहूँगा मैं

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