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बोल पड़ते हैं हम जो आगे से - ज़िया मज़कूर कविता - Darsaal

बोल पड़ते हैं हम जो आगे से

बोल पड़ते हैं हम जो आगे से

प्यार बढ़ता है इस रवय्ये से

मैं वही हूँ यक़ीं करो मेरा

मैं जो लगता नहीं हूँ चेहरे से

हम को नीचे उतार लेंगे लोग

इश्क़ लटका रहेगा पंखे से

सारा कुछ लग रहा है बे-तरतीब

एक शय आगे पीछे होने से

वैसे भी कौन सी ज़मीनें थीं

मैं बहुत ख़ुश हूँ आक़-नामे से

ये मोहब्बत वो घाट है जिस पर

दाग़ लगते हैं कपड़े धोने से

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