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ज़र्द पत्ते थे हमें और क्या कर जाना था - ज़िया ज़मीर कविता - Darsaal

ज़र्द पत्ते थे हमें और क्या कर जाना था

ज़र्द पत्ते थे हमें और क्या कर जाना था

तेज़ आँधी थी मुक़ाबिल सो बिखर जाना था

वो न था तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ पे पशेमान तो फिर

तुम को भी चाहिए ये था कि मुकर जाना था

क्यूँ भला कच्चे मकानों का तुम्हें आया ख़याल

तुम तो दरिया थे तुम्हें तेज़ गुज़र जाना था

इश्क़ में सोच समझ कर नहीं चलते साईं

जिस तरफ़ उस ने बुलाया था उधर जाना था

तुझ से ही टूटा भरम रिश्तों की मज़बूती का

सर पे इल्ज़ाम तिरे दीदा-ए-तर जाना था

ख़ुद को जब कर ही दिया था तिरी आँधी के सुपुर्द

फिर ये क्या जान के करते कि किधर जाना था

क्या ख़बर थी कि यहाँ तेरी ज़रूरत होगी

हम ने तो बस दर-ओ-दीवार को घर जाना था

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