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ये तो हाथों की लकीरों में था गिर्दाब कोई - ज़िया ज़मीर कविता - Darsaal

ये तो हाथों की लकीरों में था गिर्दाब कोई

ये तो हाथों की लकीरों में था गिर्दाब कोई

इतने से पानी में अगर हो गया ग़र्क़ाब कोई

ग़म ज़ियादा हैं बहुत आँखें हैं सहरा सहरा

अब तो आ जाए यहाँ अश्कों का सैलाब कोई

इश्क़ का फ़ैज़ है ये तू जो चहक उट्ठा है

बे-सबब इतना भी होता नहीं शादाब कोई

अब्र बन कर मुझे आग़ोश में ले और समझ

कैसे सहरा को क्या करता है सैराब कोई

तर्बियत दीद की देते हैं जो हैं लाइक़-ए-दीद

ख़ुद कहाँ जानता है दीद के आदाब कोई

ये जो हर धूप को ललकारती रहती है सदा

क्या मिरे सर पे दुआओं की है मेहराब कोई

कैसी ताबीर की हसरत कि 'ज़िया' बरसों से

ना-मुराद आँखों ने देखा ही नहीं ख़्वाब कोई

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