उस को जाते हुए देखा था पुकारा था कहाँ
उस को जाते हुए देखा था पुकारा था कहाँ
रोकते किस तरह वो शख़्स हमारा था कहाँ
थी कहाँ रब्त में उस के भी कमी कोई मगर
मैं उसे प्यारा था पर जान से प्यारा था कहाँ
बे-सबब ही नहीं मुरझाए थे जज़्बों के गुलाब
तू ने छू कर ग़म-ए-हस्ती को निखारा था कहाँ
बीच मझंदार में थे इस लिए हम पार लगे
डूबने के लिए कोई भी किनारा था कहाँ
आख़िर-ए-शब मिरी पलकों पे सितारे थे कई
लेकिन आने का तिरे कोई इशारा था कहाँ
ये तमन्ना थी कि हम उस पे लुटा दें हस्ती
ऐ 'ज़िया' उस को मगर इतना गवारा था कहाँ
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