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राहत-ए-वस्ल बिना हिज्र की शिद्दत के बग़ैर - ज़िया ज़मीर कविता - Darsaal

राहत-ए-वस्ल बिना हिज्र की शिद्दत के बग़ैर

राहत-ए-वस्ल बिना हिज्र की शिद्दत के बग़ैर

ज़िंदगी कैसे बसर होगी मोहब्बत के बग़ैर

अब के ये सोच के बीमार पड़े हैं कि हमें

ठीक होना ही नहीं तेरी अयादत के बग़ैर

इश्क़ के मारों को आदाब कहाँ आते हैं

तेरे कूचे में चले आए इजाज़त के बग़ैर

हम से पूछो तो कि हम कैसे हैं ऐ हम-वतनो

अपने यारों के बिना अपनी मोहब्बत के बग़ैर

मुल्क तो मुल्क घरों पर भी है क़ब्ज़ा उस का

अब तो घर भी नहीं चलते हैं सियासत के बग़ैर

अक्स किस का ये उतर आया है आईने में

कौन ये देख रहा है मुझे हैरत के बग़ैर

हासिल-ए-इश्क़ अगर कुछ है तो वहशत है 'ज़िया'

और इंसान मुकम्मल नहीं वहशत के बग़ैर

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