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जो रिश्तों की अजब सी ज़िम्मेदारी सर पे रक्खी है - ज़िया ज़मीर कविता - Darsaal

जो रिश्तों की अजब सी ज़िम्मेदारी सर पे रक्खी है

जो रिश्तों की अजब सी ज़िम्मेदारी सर पे रक्खी है

तो अब दस्तार जैसी चीज़ भी ठोकर पे रक्खी है

तिरी यादों की पाएल सी खनकती है मिरे घर में

मिरे कमरे के अंदर गूँजती है दर पे रक्खी है

तुम्हारे जिस्म ने पहलू-ब-पहलू जिस को लिखा था

वो सिलवट ज्यूँ की त्यूँ अब भी मिरे बिस्तर पे रक्खी है

तुम्हारे लम्स की ख़ुशबू अभी तक साथ है मेरे

मिरे तकिए के नीचे है मिरे बिस्तर पे रक्खी है

कहाँ की बे-क़रारी बेकली और कैसी बेचैनी

हथेली आप की जब इस दिल-ए-मुज़्तर पे रक्खी है

अब इस आशुफ़्तगी में क्या बताएँ सिलसिला अपना

कभी जो ख़ानदानी थी शराफ़त घर पे रक्खी है

कभी हम उस को दिल का बोझ समझे हैं न समझेंगे

जो गठरी ज़िम्मेदारी की हमारे सर पे रक्खी है

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