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दर्द की शाख़ पे इक ताज़ा समर आ गया है - ज़िया ज़मीर कविता - Darsaal

दर्द की शाख़ पे इक ताज़ा समर आ गया है

दर्द की शाख़ पे इक ताज़ा समर आ गया है

किस की आमद है 'ज़िया' कौन नज़र आ गया है

जाने किस जुर्म की पाई है सज़ा पैरों ने

इक सफ़र ख़त्म पे है अगला सफ़र आ गया है

लहर ख़ुद पर है पशेमान कि उस की ज़द में

नन्हे हाथों से बना रेत का घर आ गया है

दर्द भी सहना तबस्सुम भी लबों पर रखना

मर्हबा इश्क़ हमें भी ये हुनर आ गया है

आ गया उस की बुज़ुर्गी का ख़याल आँधी को

वे जो इक राह में बोसीदा शजर आ गया है

उस की आँखों में नहीं पहली सी चाहत लेकिन

ये भी क्या कम है कि वे लौट के घर आ गया है

अपनी महरूमी पे होने ही लगा था मायूस

देखता क्या हूँ दुआओं में असर आ गया है

ज़िंदगी रोक के अक्सर यही कहती है मुझे

तुझ को जाना था किधर और किधर आ गया है

हक़ परस्तों के लिए सब्र का लम्हा है 'ज़िया'

झूट के नेज़े पे सच्चाई का सर आ गया है

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