यूँ तो मुसहफ़ भी उठाए गए क़समें भी मगर
आख़िरी फ़ैसला तलवार उठाने से हुआ
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चराग़-ए-कुश्ता से क़िंदील कर रहा है मुझे
दिनों में दिन थे शबों में शबें पड़ी हुई थीं
हम अपने आप से भी हम-सुख़न न होते थे
किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ
तू किसी सुब्ह सी आँगन में उतर आती है
कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो
उन आँखों की हैरत और दबीज़ करूँ
कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं
आवाज़ों में बहते बहते
अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा