तुझ को छुआ तो देर तक ख़ुद को ही ढूँडता रहा
इतनी सी देर में भला तुझ से कहाँ मिला हूँ मैं
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जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ
किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
आईने के आख़िरी इज़हार में
कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं
मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ
तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ
उन आँखों की हैरत और दबीज़ करूँ
मैं जागते में कहीं बन रहा हूँ अज़-सर-ए-नौ
सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ
थोड़ी सी बारिश होती है