तू किसी सुब्ह सी आँगन में उतर आती है
मैं किसी धूप सा दालान में आ जाता हूँ
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समझ पाया नहीं पर सुन रहा हूँ
तिरी ख़्वाहिश किसी इम्काँ की सूरत
किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
हम अपने आप से भी हम-सुख़न न होते थे
रिफ़ाक़त की ये ख़्वाहिश कह रही है
तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो
अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा
यूँ तो मुसहफ़ भी उठाए गए क़समें भी मगर
कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं
क़तरा क़तरा छत से ही रिसने लगी
मैं जागते में कहीं बन रहा हूँ अज़-सर-ए-नौ