थोड़ी सी बारिश होती है
कितनी जल्दी भर जाता हूँ
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चराग़-ए-कुश्ता से क़िंदील कर रहा है मुझे
सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ
कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो
आवाज़ों में बहते बहते
जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ
दिनों में दिन थे शबों में शबें पड़ी हुई थीं
अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा
मैं जागते में कहीं बन रहा हूँ अज़-सर-ए-नौ
हम अपने आप से भी हम-सुख़न न होते थे
फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ
उन आँखों की हैरत और दबीज़ करूँ
मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ