तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
कभी मैं ख़ुद को तिरे नाम से बुलाता हुआ
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जिस भी लफ़्ज़ पे उँगलियाँ रख दे साज़ करे
हर एक साज़ को साज़िंदगाँ नहीं दरकार
रिफ़ाक़त की ये ख़्वाहिश कह रही है
मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ
उन आँखों की हैरत और दबीज़ करूँ
न थीं तो दूर कहीं ध्यान में पड़ी हुई थीं
किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं
अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा
तिरी ख़्वाहिश किसी इम्काँ की सूरत
जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ