समझ पाया नहीं पर सुन रहा हूँ
वो सरगोशी में क्या क्या कह रही है
Anwar Masood
Gulzar
Mohsin Naqvi
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Parveen Shakir
Rahat Indori
Ahmad Faraz
Habib Jalib
Jaun Eliya
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तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
तिरी ख़्वाहिश किसी इम्काँ की सूरत
रिफ़ाक़त की ये ख़्वाहिश कह रही है
किवाड़ खुलने से पहले ही दिन निकल आया
कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो
आवाज़ों में बहते बहते
दिनों में दिन थे शबों में शबें पड़ी हुई थीं
कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं
सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ
किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
थोड़ी सी बारिश होती है
फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ