मैं जागते में कहीं बन रहा हूँ अज़-सर-ए-नौ
वो अपने ख़्वाब में तश्कील कर रहा है मुझे
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चराग़-ए-कुश्ता से क़िंदील कर रहा है मुझे
फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ
न थीं तो दूर कहीं ध्यान में पड़ी हुई थीं
क़तरा क़तरा छत से ही रिसने लगी
मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ
दिनों में दिन थे शबों में शबें पड़ी हुई थीं
सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ
हम अपने आप से भी हम-सुख़न न होते थे
उन आँखों की हैरत और दबीज़ करूँ
आईने के आख़िरी इज़हार में
जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ
कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो