किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
तुम्हारे बाद किसी ख़्वाब से इलाक़ा नहीं
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यूँ तो मुसहफ़ भी उठाए गए क़समें भी मगर
क़तरा क़तरा छत से ही रिसने लगी
न थीं तो दूर कहीं ध्यान में पड़ी हुई थीं
फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ
दिनों में दिन थे शबों में शबें पड़ी हुई थीं
तिरी ख़्वाहिश किसी इम्काँ की सूरत
जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ
मैं जागते में कहीं बन रहा हूँ अज़-सर-ए-नौ
तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
तुग़्यानी से डर जाता हूँ