जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ
मालिक इन फूलों की उम्र दराज़ करे
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Gulzar
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तुझ को छुआ तो देर तक ख़ुद को ही ढूँडता रहा
यूँ तो मुसहफ़ भी उठाए गए क़समें भी मगर
मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ
क़तरा क़तरा छत से ही रिसने लगी
किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा
किवाड़ खुलने से पहले ही दिन निकल आया
हर एक साज़ को साज़िंदगाँ नहीं दरकार
सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ
दिनों में दिन थे शबों में शबें पड़ी हुई थीं
तुग़्यानी से डर जाता हूँ
आईने के आख़िरी इज़हार में