अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा
आइने और चराग़ के बीच का फ़ासला हूँ मैं
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आईने के आख़िरी इज़हार में
किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
न थीं तो दूर कहीं ध्यान में पड़ी हुई थीं
तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
थोड़ी सी बारिश होती है
कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो
जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ
कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं
फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ
सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ
रिफ़ाक़त की ये ख़्वाहिश कह रही है
उन आँखों की हैरत और दबीज़ करूँ