आवाज़ों में बहते बहते
ख़ामोशी से मर जाता हूँ
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अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा
किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
यूँ तो मुसहफ़ भी उठाए गए क़समें भी मगर
जिस भी लफ़्ज़ पे उँगलियाँ रख दे साज़ करे
तू किसी सुब्ह सी आँगन में उतर आती है
चराग़-ए-कुश्ता से क़िंदील कर रहा है मुझे
किवाड़ खुलने से पहले ही दिन निकल आया
दिनों में दिन थे शबों में शबें पड़ी हुई थीं
उन आँखों की हैरत और दबीज़ करूँ
थोड़ी सी बारिश होती है
कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं