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सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ - ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क कविता - Darsaal

सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ

सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ

मैं क्या अजब रुतों के बदलने में आ रहूँ

बारिश बरसने धूप के खिलने में हूँ शरीक

शाख़ों पे कोंपलों के निकलने में आ रहूँ

बहने लगूँ किनारों को छूते हुए कहीं

दरिया के लहर लहर मचलने में आ रहूँ

रुक जाऊँ टहनियों को बला कर ज़रा सी देर

फिर से हवा चले तो मैं चलने में आ रहूँ

गंदुम की बालियों में बनों ज़ाइक़ा कहीं

मिट्टी को चूमूँ फूलने-फलने में आ रहूँ

तुझ में समा न जाऊँ अगर मेरा बस चले

ये दिल धड़कने साँस के चलने में आ रहूँ

हो जाऊँ 'तुर्क' ताक़ ही इस ख़्वाब-गाह का

लौ की तरह चराग़ के जलने में आ रहूँ

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