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कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं - ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क कविता - Darsaal

कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं

कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं

आज भी अपने वक़्त पर घर से निकल पड़ा हूँ मैं

अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा

आइने और चराग़ के बीच का फ़ासला हूँ मैं

तुझ को छुआ तो देर तक ख़ुद को ही ढूँडता रहा

इतनी सी देर में भला तुझ से कहाँ मिला हूँ मैं

ख़ुश्बू तिरे वजूद की घेरे हुए है आज भी

तेरे लबों का ज़ाइक़ा भूल नहीं सका हूँ मैं

आयतों जैसे ना-गहाँ जावेदाँ लम्स की क़सम

तेरे अछूते जिस्म का पहला मुकालिमा हूँ मैं

वैसे तो मेरा दायरा पूरा नहीं हुआ अभी

ऐसी ही कोई क़ौस थी जिस से जुड़ा हुआ हूँ मैं

जितनी भी तेज़ धूप हो शाख़ें हैं मेहरबाँ तिरी

छाँव पराई ही सही साँस तो ले रहा हूँ मैं

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