कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो
कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो
जो हो रहा है ये सब पहले हो चुका ही न हो
वो सदमा जिस के सबब मैं हूँ सर-ब-ज़ानू अभी
अजब नहीं मिरी दानिस्त में हुआ ही न हो
तिरे ग़याब में जो कुछ किया हिकायत मैं
कहीं वो गुफ़्ता ओ ना-गुफ़्ता से सिवा ही न हो
कलाम करती हुई लहरें चुप न हों मिरे बाद
मिरे लिए कहीं पानी रुका हुआ ही न हो
गुज़रती शाम दरख़्त आबजू सुकूत और मैं
सुख़न-मिसाल ये मंज़र भी गूँजता ही न हो
ये क्या कि मैं नया चेहरा लिए उठूँ हर रोज़
ये क्या कि 'तुर्क' मिरा ख़्वाब टूटता ही न हो
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