मुझे अपनी बीवी पे फ़ख़्र है मुझे अपने साले पे नाज़ है
नहीं दोश दोनों का इस में कुछ मुझे डाँटता कोई और है
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लाटरी
कूचा-ए-यार में मैं ने जो जबीं-साई की
वो भरी बज़्म में कहती है मुझे अंकल-जी
मैं शिकार हूँ किसी और का मुझे मारता कोई और है
माशूक़ जो ठिगना है तो आशिक़ भी है नाटा
भारी पैर
बिन-बुलाया मेहमान
सफ़र हो रेल-गाड़ी का तो छके छूट जाते हैं
मैं जिसे हीर समझता था वो राँझा निकला
घर से बाहर
जब भी तुझे देखा किसी बोहरान में देखा
शायर-ए-आज़म