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सफ़र हो रेल-गाड़ी का तो छके छूट जाते हैं - ज़ियाउल हक़ क़ासमी कविता - Darsaal

सफ़र हो रेल-गाड़ी का तो छके छूट जाते हैं

सफ़र हो रेल-गाड़ी का तो छके छूट जाते हैं

पसीने के घड़े गोया सरों पर फूट जाते हैं

टिकट लेना जो पहला काम है और सख़्त मुश्किल है

समझ लीजे कि ये अपने सफ़र की पहली मंज़िल है

रिज़र्वेशन कराना है तो पहले इक क़ुली पकड़ें

ख़ुशामद से मना लीजे क़ुली साहिब अगर अकड़ें

बुकिंग-ऑफ़िस का बाबू आप की आसान कर देगा

वो मुश्किल हल करेगा और अपनी फ़ीस ले लेगा

रिज़र्वेशन करा देगा और वो दस-बीस ले गा

किसी की सीट हो वो आप को दिलवा के दम लेगा

मगर पहले ये तय कर लें कि वो कितनी रक़म लेगा

हमेशा याद रक्खें ये उसूल-ए-जावेदानी है

कि स्टेशन मक़ाम-ए-कूच है और दार-ए-फ़ानी है

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